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धूमिल की कविताओं में सत्ता की निरंकुशता के दंश और उन्माद को बख़ूबी पढ़ा जा सकता है। समाज का रेखाचित्र तो लगभग हर कविता में दिखता ही है। साम्राज्यवादी पूँजीवादी व्यवस्था की जकड़न से, बिखरते समाजवाद के खंडित अवशेषों में, व्यक्तिवादी बाज़ारवाद के केवल लाभ-हानि से जुड़ी तथाकथित उदारवादी वैश्विक व्यवस्था की चाल की आहट धूमिल की कविताओं में स्पष्ट परिलक्षित होती है। यह धूमिल की कविता-शक्ति ही थी जिसने हिंदी आलोचना का मुँह कहानियों से मोड़कर कविताओं की तरफ़ कर दिया और वहीं से कविताओं की आलोचना की शुरुआत हुई। इस संग्रह में धूमिल की कविताओं, उनके गीत, उनके गद्य के साथ ही कुछ बहुमूल्य संस्मरण भी हैं।